महाराजा अग्रसेन जी की जीवन कहानी

जब महाभारत कालीन द्वापर युग अपनी चरम सीमा पर था यानी की पूर्णता पर था आपको जानकार बहुत अच्छा लगेगा की अग्रवाल सूर्यवंशी श्री राम जी के वंशंज है जी हाँ यह सच है तो बात उस समय की है जब महाभारत कालीन द्वापर युग अपनी चरम सीमा पर था यानी की पूर्णता पर था जैसा की आप सभी जानते है श्री राम जी के दो पुत्र थे लव और कुश तो द्वापर अपने चरम पर था और कलयुग की शुरुआत होने वाली थी श्रीराम जी के पुत्र कुश की चौतीसवीं पीढ़ी में महाराजा अग्रसेन जी का जन्म अश्विन शुक्ल एकम के दिन हुआ यदि हम कैलेंडर की बात करे तो कालगणना के अनुसार विक्रम संवत आरंभ होने से भी 3130 वर्ष पहले यानी की आज से लगभग 5204 वर्ष पूर्व महाराजा अग्रसेन जी का अवतरण हुआ। उस समय प्रतापनगर के महाराजा वल्लभसेन थे और उनकी पत्नी का नाम भगवती देवी था तो अश्विन शुक्ल एकम के दिन माता भगवती ने एक बड़े ही सुंदर पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम अग्रसेन रखा गया । यदि हम प्रतापनगर की वर्तमान लोकेशन की बात करे तो यह राजस्थान और हरियाणा के बीच सरस्वती नदी के किनारे स्थित था।

महाराजा वल्लभसेन यानी की अग्रसेन जी के पिता बालक अग्रसेन को शिक्षा प्राप्ति के लिए मुनि तांडेय के आश्रम लेकर गए और वही अग्रसेन जी की शिक्षा दीक्षा पूर्ण हुई यही पर अग्रसेन जी ने एक अच्छे शासक बनने के सभी गुण ग्रहण किये ।कहते है की मात्र 15 वर्ष की आयु में महाराजा वल्लभसेन जी युवा अग्रसेन को अपने साथ महाभारत के युद्ध में पांडवो के पक्ष में युद्ध लड़ने के लिए लेकर गए थे इसी युद्ध के दौरान महाराज वल्लभसेन युद्ध में भीष्म पितामह के बाणों से वीरगती को प्राप्त हो गए। पिता की इस तरह से युद्ध में वीरगति को प्राप्त हो जाने पर अग्रसेन जी को कभी सदमा लगा वो बेहद शोकाकुल हो गए तब स्वयम भगवान श्रीकृष्ण ने अग्रसेन जी को शोक से उबरने का दिव्य ज्ञान दिया और अपने पिता का राजकाज संभालने का निर्देश दिया।श्री कृष्ण की आज्ञा का पालन कर अग्रसेन जी ने राजगद्दी पर बैठना स्वीकार कर लिया । समय बीतता चला गया अग्रसेन जी जन जन के प्रिय राजा थे वे बड़े ही दयालु और प्रजा रक्षा के लिए सदैव तत्पर रहते थे प्रजा को वो अपने बच्चो की तरह मानते थे जब अग्रसेन जी विवाह योग्य हुए तो एक विवाह स्वयंवर में गए, नागराज कुमुद ने अपनी सुंदर विवाह योग्य पुत्री माधवी के विवाह के लिए एक भव्य स्वयंवर का आयोजन किया इस स्वयंवर में ना केवल राजा महाराजा मानव गन्धर्व बल्कि देवतागण भी उपस्थित स्वयंवर की सभा सजी हुई थी स्वयंवर में देवताओ के राजा इंद्र भी मौजूद थे देवी माधवी ने सभी की और देखा किन्तु देवी माधवी की नजर युवा अग्रसेन पर जाकर टिक गयी माधवी ने सभी को छोड़ कर महाराजा अग्रसेन जी को अपने वर के रूप में चुन लिया ।

देवी माधवी द्वारा अग्रसेन जी को अपने वर के रुप में चुन लेने पर देवराज इंद्र को अपने आप को बेहद अपमानित महसूस करने लगे वो क्रोधित हो गए और गुस्से में वहां से चले गए । इन्द्रलोक जाने के बाद उन्होंने महाराजा अग्रसेन जी की नगरी प्रतापनगर में अकाल की स्थितियां बना दी वर्षो वर्ष तक के लिए वर्षा रोक दी, अब प्रतापनगर की जनता भूख प्यास से तडफने लगी महाराजा अग्रसेन जी जनता के दुःख से बहुत दुखी थे उन्होंने अपने राजकोष और अन्न के भण्डार को प्रजा के लिए खोल दिए मगर फिर भी पानी की समस्या ज्यो की त्यों थी आखिर वो पानी कहाँ से लाते सारे कुवे तालाब सुख चुके थे यहाँ तक की राजमहल का कुआ भी सुख गया ।

प्रजा की ऐसी दशा देख महारजा अग्रसेन जी बहुत परेशान थे वो समझ नहीं पा रहे थे की क्या करे एक दिन भोलेनाथ शिव ने उन्हें सपने में अपनी कुलदेवी की आरधना और तपस्या करने के लिए कहा प्रतापनगर को इस संकट से बचाने के लिए महाराजा अग्रसेन जी माता लक्ष्मी जी की कठोर तपस्या शुरू कर दी महाराजा अग्रसेन जी की कठोर तपस्या से कुलदेवी माता लक्ष्मी जी प्रसन्न हुई और प्रसन्न होकर अग्रसेन जी को इस समस्या का हल बताया की कैसे प्रतापनगर के आकाल को दूर दिया जा सकता है माता लक्ष्मी जी ने अग्रसेन जी को आदेश दिया की यदि तुम कोलापूर के राजा नागराज महीरथ की पुत्री के विवाह करते हो तो राजा नागराज महीरथ की शक्तियां भी तुम्हें प्राप्त हो जाएंगी। और फिर तुम इंद्र को तुमसे लड़ने के लिए हजार बार सोचना होगा ।

प्रजा पालक राजा अग्रसेन जी एक विवाह में ही विश्वास रखते थे किन्तु कुलदेवी लक्ष्मी जी के आदेश और प्रजा की रक्षा के लिए उन्होंने दूसरा विवाह करना स्वीकार कर लिया उन्होंने राजा नागराज महीरथ की पुत्री राजकुमारी सुंदरावती से दूसरा विवाह किया और तब इन्द्रदेव को विवश होकर उनके नगर में वर्षा करनी पड़ी इस तरह प्रजा पालक महाराजा अग्रसेन जी ने प्रतापनगर को आकाल के घोर संकट से बचाया।

अब महाराजा अग्रसेन जी के दो-दो नाग वंशो से संबंध स्थापित हो जाने के बाद महाराज अग्रसेन जी के राज्य में अपार सूख-समृध्दि बढ़ने लगी। इधर देवराज इंद्र को भी अपनी लगती का अहसास हो गया की उन्होंने अनावश्यक ही अग्रसेन जी को परेशां किया तब देवराज इंद्र ने अग्रसेन जी से मैत्री का प्रस्ताव रखा जिसे महाराजा अग्रसेन जी ने स्वीकार किया दोस्तों दो दो नाग वंशो से संबंध होने के कारण अग्रबंधू नागों को अपने मामा मानते है।

महाराजा अग्रसेन जी अपनी दोनों रानियों और प्रजा के साथ सुख पूर्वक राज्य कर रहे थे वो अपने राज्य को बढ़ाना चाहते थे लेकिन इसके लिए वो खून खराबा कर युद्ध कर किसी और का राज्य हथियाने में विश्वास नहीं करते थे तो उन्होंने अपने राज्य के विस्तार के लिए एक नए राज्य की स्थापना पर विचार किया । तब महाराजा अग्रसेन जी ने अपने नए राज्य की स्थापना के लिए रानी माधवी को अपने साथ लिया और पूरे राज्य का भ्रमण करने लगे भ्रमण करते हुए वो जंगल की और निकाल पड़े जंगल में एक जगह उन्होंने एक शेरनी को शावक को जन्म देते देखा उस समय महाराजा अग्रसेन जी हाथी पर सवार थे शेरनी के शावक ने महाराजा अग्रसेन के हाथी को अपनी माँ के लिए संकट समझकर हाथी पर छलांग लगा दी मगर वो शावक कुछ कर नहीं पाया महाराजा अग्रसेन जी ने उन्हें सुरक्षित जाने दिया । महल में जाकर महाराजा अग्रसेन जी ने इस घटना को ॠषि मुनियों और ज्योतिषियों को बताया और उनकी सलाह पर वही पर अपने नए राज्य की नीव रखी जहाँ शेरनी ने शावक को जन्म दिया।

महाराजा अग्रसेन जी ने अपने नये राज्य का नाम अग्रेयगण या अग्रोदय रखा जिस जगह पर उस शेरनी ने शावक को जन्म दिया उस जगह पर अग्रोहा शहर की स्थापना की गई आग्रोहा को अग्रोदय की राजधानी बनाया गया।


आग्रोहा वर्तमान में अग्रवालो का तीर्थ स्थान है जो आज के हरियाणा के हिसार के पास है यह स्थान अग्रवाल समाज के लिए पांचवे धाम के माना जाता है यहाँ अग्रोहा विकास ट्रस्ट के द्वारा बहुत सुंदर मन्दिर बनाया गया है । धीरे धीरे अग्रसेन जी ने अपने राज्य को 18 गणों में विभाजित कर दिया और एक विशाल राज्य की स्थापना कर दी । एक दिन महर्षी गर्ग ने महाराजा अग्रसेन को सभी 18 गणाधिपतियों के साथ 18 यज्ञ करने का सुझाव दिया महाराजा अग्रसेन जी ने महर्षि गर्ग के सुझावानुसार 18 यज्ञ की सहमती दे दी और यज्ञ शुरू किये गए प्रथम यज्ञ को सम्पन्न कराने के लिए मह्रसी गर्ग स्वयम पुरोहित बने। तब उन्होंने अग्रसेन जी के सबसे बड़े राजकुमार विभु को दीक्षित किया और राजकुमार वुभु को गर्ग गोत्र से मंत्रित किया और इस प्रकार से महाराजा अग्रसेन जी के साढ़े सत्रह गोत्रो का निर्माण हुआ । अब आप कहेंगे यह साढ़े सत्रह गोत्रो का क्या चक्कर है तो चलिए कथा को आगे बढ़ाते है सब समझ में जा जायेगा | तो कुल 18 यज्ञ किये जाने थे जिनमे से 17 यज्ञ पूर्ण हो चुके थे | 18 वें यज्ञ में जीवित घोड़े की बलि दी जानी थी और जिस समय 18 वें यज्ञ में जीवित घोड़े की बलि दी जा रही थी महाराजा अग्रसेन जी ने घोड़े को तड़पता हुआ देखा लिया घोड़े की ऐसी हालत देख अग्रसेन जी को दया घृणा उत्पन्न हो गई उन्होंने तत्काल ही यज्ञ को बीच में ही रोक दिया और उसी समय पुरे राज्य में घोषणा करा दी आज से मेरे राज्य का कोई भी व्यक्ति यज्ञ में पशुबलि नहीं देगा ना ही इस राज्य में किसी भी पशु को मारा जाएगा और ना ही किसी पशु का भक्षण किया जाएगा।

तो 18 वां यज्ञ अब अधुरा ही रहा गया लेकिन उस समय यज्ञ में पशुबलि अनिवार्य थी जिसके बिना एक गोत्र अधूरा रह जाएगा ऋषियों ने ऐसा कहा महाराजा अग्रसेन जी ने कहा ठीक है गोत्र अधुरा रह जाए तो रह जाने दो लेकिन अब कोई पशु हत्या नहीं होगी और इस तरह से एक गोत्र अधुरा ही रह गया और साढ़े सत्रह गोत्र ही बने। समय बीतता चला जा रहा था एक बार अग्रोहा में अकाल पड़ गया चारों ओर हाहाकार मचने लगा तब एक रात में अग्रसेन जी वेश बदलकर अपने राज्य का भ्रमण कर रहे थे तो आग्रोहा आ गए और एक घर की खिड़की में छुप कर देखने लगे की वहां लोगो का क्या हाल है उन्होंने देखा कि वहां सिर्फ चार लोगो का खाना बना था अचानक वहां एक सदस्य और आ गया लेकिन खाने को अब और कुछ नहीं था एक सदस्य आने पर भोजन की समस्या हो गई महाराजा अग्रसेन जी को उत्सुकता होने लगी की अब क्या होगा तभी परिवार के मुखिया ने सभी सदस्यों की थालियों में से थोड़ा-थोड़ा भोजन निकालकर एक पांचवी थाली और बना दी पांचवे सदस्य के भोजन की समस्या दूर हो गयी ।

महाराजा अग्रसेन जी इस घटना से बहुत प्रभावित हुए तब उन्होंने ‘एक ईट और एक रुपया’ के सिद्धांत की घोषणा की इस सिधान्द्त के अनुसार उनके राज्य में नगर में कही से भी आने वाले हर नए परिवार को पुरे नगर में रहने वाले हर परिवार की ओर से एक ईट और एक रुपया दिया जाएगा और इस तरह प्राप्त ईटों से वो परिवार अपने घर का निर्माण नगर में आसानी करें एवं प्राप्त रुपयों से व्यापार करें । महाराजा अग्रसेन जी ने 108 वर्षों तक सुख पूर्वक बिना कोई युद्ध किये खून खराबा किये अपने राज्य का विस्तार किया और राज किया। एक दिन महाराजा अग्रसेन जी की कुलदेवी महालक्ष्मी ने उन्हें धरती लोक से विदा लेने के लिए कहा तब महाराजा अग्रसेन जी आग्रेय गणराज्य का शासन अपने ज्येष्ठ पुत्र विधु के हाथों में सौंप कर तपस्या करने चले गए और वही तपस्या के दौरान यह नश्वर शरीर छोड़ कर परमधाम को चले गए । तभी से महाराजा अग्रसेन जी के जन्मदिन अश्विन शुक्ल एकम यानी की नवरात्रि के प्रथम दिन उनकी जयंती के रुप में धुमधाम से मनाया जाता है।

आज भी महाराजा अग्रसेन जी को पूजा जाता है ना केवल अग्रवालो द्वारा बल्कि अन्य कई जातियों के लोगो द्वारा भी अग्रसेन जी को पूजा जाता है कहते है की अग्रसेन जी आज भी सभी की रक्षा के लिए तत्पर है प्रेम से बोलिए जय श्री अग्रसेन जी महाराज की ।